Friday, August 3, 2007

''जहां दौड़ती थीं गाड़ियां, वहां रेंग रही जिंदगी

दरभंगा। जिले की 90 फीसदी आबादी बाढ़ की त्रासदी झेल रही है। स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि देश-दुनिया से कटे दरभंगा में अगल-बगल के लोग भी एक-दूसरे के हालचाल से रूबरू नहीं हो पा रहे हैं। सभी नदियां अपने ही रिकार्डो को तोड़ चुकी है तो जितनी वर्षा एक वर्ष में होनी चाहिए वह एक पखवारा में ही हो गयी है। हर तरफ लाचारी व बेबसी का दृश्य और हर जुबान से इसे दैवीय प्रकोप होने के स्वर गूंजने लगे हैं। कभी ओवर लोडिंग का आरोप झेल रहे वाहन वीरानगी में खड़े हैं। देश के कोने-कोने तक पहुंचाने वाली रेलगाड़ी एक इंच नहीं खिसक रही है। भला है, कुछ लोगों को कम से कम अस्थायी आशियाना तो मिल गया है। सड़क व रेल लाइन पीड़ितों की शरणस्थली में तब्दील है। दरभंगा से निकलने वाली तीन मुख्य सड़कों पर तेज रफ्तार में चलने वाली गाड़ियों की जगह विस्थापितों की रेंगती जिंदगी ने ले ली है। जहां-तहां तंबू लग गये हैं ऐसा लग रहा है, जैसे इतिहास के छात्र के लिए आदिम युग बताने की प्रायोगिक कक्षा चल रही हो। रुक-रुक कर हो रही वर्षा ने ऐसी हालत पैदा कर दी है, जिससे लग रहा है कि आग के रूप में पानी ने जन जीवन को जला रखा है, जिस पर पानी में नमक मिलाकर डाला जा रहा हो। सभी सीमाएं टूट चुकी हैं। मानवीय रिश्तों के बीच पर्दा तो दूर मनुष्य और पशुओं के बीच कोई सीमा नहीं रही है। आपदा की इस घड़ी में मानवता का परिचय देने वालों की कमी तो है ही साथ-मजबूरी का फायदा उठाने वाले भी कम नहीं हैं। मनमानी दर पर सामान बेचने की खुली छूट है तो वाजिब हक से भी कम पाने का दास्तान भी है। भले ही सुधा दूध डेढ़ से दोगुनी कीमत पर बिका हो, लेकिन पशुओं के साथ विस्थापित जीवन जी रहे लोग सात से दस रूपये प्रति लीटर दूध बेचने को मजबूर हैं ताकि पेट चल सके। एक तो वैसे ही सड़कें वीरान हैं, लेकिन जो भी वाहन चल रहे हैं उसमें किराया की सीमा नहीं है। ठीक इसके विपरीत लहेरियासराय टावर पर रिक्शा चालक विनोद दास मिलता है। जहां का किराया सामान्य दिनों में दस रुपया है वहां आठ, नहीं! तो सात रुपये में ही चलने को तैयार हो जाता है। पूछने पर बताता है कि पूरा परिवार पानी में डूबा है, जल्दी घर जाना है पूरा किराये के चक्कर में यह भी छूट जाएगा तो खाली हाथ क्या लेकर जाएंगे? बाढ़ से पूर्व तैयारी के बाबत प्रखंड, जिला, प्रमंडल और राजधानी में हो रही बैठकों में समीक्षा हो रही थी, प्रकृति ने परीक्षा ली, लेकिन अभी तक सभी फेल रहे हैं। सरकारी राहत की चर्चा होते ही आंखों में ही आक्रोश का जीवंत रूप देखने को मिलने लगता है। यदि मुंह खुला तो न जाने क्या-क्या सुनना पड़ सकता है?

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